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चुप खड़े हैं दरमियान-ए-का'बा-ओ-बुत-ख़ाना हम - एजाज़ वारसी कविता - Darsaal

चुप खड़े हैं दरमियान-ए-का'बा-ओ-बुत-ख़ाना हम

चुप खड़े हैं दरमियान-ए-का'बा-ओ-बुत-ख़ाना हम

किस तरफ़ जाएँ बता ऐ जल्वा-ए-जानाना हम

अज़्मत-ए-रफ़्ता से इतने हो गए बेगाना हम

बन गए हैं अपनी ही नज़रों में आज अफ़्साना हम

हाए ये मजमूआ'-ए-सर-मस्ती-ओ-कैफ़-ओ-ख़ुमार

तक रहे हैं तेरी आँखों को लिए पैमाना हम

बेवफ़ा शमएँ बहर-सू ढूँढती हैं अब हमें

मिट गए जब सूरत-ए-ख़ाकिस्तर-ए-परवाना हम

हैं निगाहों में अभी तक तूर की रुस्वाइयाँ

अब कहाँ जुरअत कि देखें जल्वा-ए-जानाना हम

आरज़ू-ए-सज्दा-रेज़ी हद से बढ़ जाती है जब

सर तिरे क़दमों पे रख देते हैं बेताबाना हम

पा-ए-साक़ी तक जबीन-ए-शौक़ को पहुँचा दिया

तेरे मम्नून-ए-करम हैं लग़्ज़िश-ए-मस्ताना हम

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