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हवा के वास्ते इक काम छोड़ आया हूँ - एजाज़ रहमानी कविता - Darsaal

हवा के वास्ते इक काम छोड़ आया हूँ

हवा के वास्ते इक काम छोड़ आया हूँ

दिया जला के सर-ए-शाम छोड़ आया हूँ

कभी नसीब हो फ़ुर्सत तो उस को पढ़ लेना

वो एक ख़त जो तिरे नाम छोड़ आया हूँ

हवा-ए-दश्त-ओ-बयाँबाँ भी मुझ से बरहम है

मैं अपने घर के दर-ओ-बाम छोड़ आया हूँ

कोई चराग़ सर-ए-रहगुज़र नहीं न सही

मैं नक़्श-ए-पा को बहर-गाम छोड़ आया हूँ

अभी तो और बहुत उस पे तब्सिरे होंगे

मैं गुफ़्तुगू में जो इबहाम छोड़ आया हूँ

ये कम नहीं है वज़ाहत मिरी असीरी की

परों के रंग तह-ए-दाम छोड़ आया हूँ

वहाँ से एक क़दम भी न जा सकी आगे

जहाँ पे गर्दिश-ए-अय्याम छोड़ आया हूँ

मुझे जो ढूँढना चाहे वो ढूँढ ले 'एजाज़'

कि अब मैं कूचा-ए-गुमनाम छोड़ आया हूँ

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