तब हज़ारों अँधेरों से
इक रौशनी की किरन फूट कर
सर्द वीरान कमरे के तारीक दीवार-ओ-दर से उलझने लगी
और कमरे में फिरते हुए
सैंकड़ों ज़र्द ज़र्रे
बिलबिलाते सिसकते हुए
मेरी जानिब बढ़े
मैं ने अपनी शहादत की उँगली उठाई
ज़र्द ज़र्रों से गोया हुआ
दोस्तो
आओ बढ़ते चलें
रौशनी की तरह रौशनी की तरफ़
रौशनी जो हमारी तमन्नाओं की प्यास है
रौशनी जो हमारी तमन्नाओं की आस है
ज़र्द ज़र्रे मेरे साथ बढ़ने लगे
रौशनी की तरफ़ रौशनी की तरफ़
चंद ज़र्रे कि जिन की रगों में
सियह रात की ज़ुल्मतें बस चुकी थीं
मेरी बातों पे हँसने लगे
और हँसते रहे
तब हज़ारों अँधेरों के सीने में
फैला हुआ इक तिलिस्म
रौशनी की तब-ओ-ताब से
टूटने के लिए
और आगे बढ़ा
(712) Peoples Rate This