हथेलियों में लकीरों का जाल था कितना
मिरे नसीब में मेरा ज़वाल था कितना
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ऐसे ही दिन थे कुछ ऐसी शाम थी
था वो जंगल कि नगर याद नहीं
हम ने आँख से देखा कितने सूरज निकले डूब गए
ग़म भी उतना नहीं कि तुम से कहें
सहर होते ही कोई हो गया रुख़्सत गले मिल कर
धुँद का आँखों पर होगा पर्दा इक दिन
कोई हो चेहरा शनासा दिखाई देता है
थीं इक सुकूत से ज़ाहिर मोहब्बतें अपनी
उस ने देखा था अजब एक तमाशा मुझ में
अभी तमाम आइनों में ज़र्रा ज़र्रा आब है
तेरे दामन की थी या मस्त हुआ किस की थी