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मंज़र-ए-वक़्त की यकसानी में बैठा हुआ हूँ - एजाज़ गुल कविता - Darsaal

मंज़र-ए-वक़्त की यकसानी में बैठा हुआ हूँ

मंज़र-ए-वक़्त की यकसानी में बैठा हुआ हूँ

रात दिन एक सी वीरानी में बैठा हुआ हूँ

कोई सामान-ए-सफ़र है न मसाफ़त दर-पेश

मुतमइन बे-सर-ओ-सामानी में बैठा हुआ हूँ

कभी नायाफ़्त का है तो कभी कम-याफ़्त का ग़म

वज्ह-बे-वज्ह परेशानी में बैठा हुआ हूँ

कार-ए-दुश्वार है आग़ाज़ से मुंकिर जब तक

कार-ए-बे-कार की आसानी में बैठा हुआ हूँ

कल कहीं रफ़्ता में था हाल की हैरत का असीर

अब किसी फ़र्दा की हैरानी में बैठा हुआ हूँ

ख़ैर हम-ज़ाद मिरा दूर तमाशाई है

शर हूँ और फ़ितरत-ए-इंसानी में बैठा हुआ हूँ

जिस्म हूँ और नफ़स ठहरा है ज़ामिन मेरा

साअत-ए-उम्र की निगरानी में बैठा हुआ हूँ

एक बाज़ार-ए-तिलिस्मात है जिस के अंदर

जेब-ए-ख़ाली तिरी अर्ज़ानी में बैठा हुआ हूँ

रेग-ता-रेग हूँ फैला हुआ सहरा की तरह

और सराबों की फ़रावानी में बैठा हुआ हूँ

ऐसा सन्नाटा है आवाज़ से हौल आता है

इक बयाबाँ सा बयाबानी में बैठा हुआ हूँ

न मैं बिल्क़ीस कि हो शहर-ए-सबा की ख़्वाहिश

न ग़म-ए-तख़्त-ए-सुलैमानी में बैठा हुआ हूँ

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