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महमिल है मतलूब न लैला माँगता है - एजाज़ गुल कविता - Darsaal

महमिल है मतलूब न लैला माँगता है

महमिल है मतलूब न लैला माँगता है

चाक-गिरेबाँ क़ैस तो सहरा माँगता है

हिज्र सर-ए-वीराना-ए-जाँ भी मोहर-ब-लब

वस्ल गली-कूचों में चर्चा माँगता है

इस आईना-ख़ाने का हर रक़्स-कुनाँ

अपने सामने अपना तमाशा माँगता है

ना-उम्मीदी लाख क़फ़स ईजाद करे

ताइर-ए-दिल परवाज़-ए-तमन्ना माँगता है

उम्र बिताता है इमरोज़ में और मकीं

दरवाज़े पर दस्तक-ए-फ़र्दा माँगता है

धूप जवानी का याराना अपनी जगह

थक जाता है जिस्म तो साया माँगता है

बाँध सग-ए-आवारा चौखट के अंदर

एक मुसाफ़िर तुझ से रस्ता माँगता है

लोग तवालत से घबराते हैं वर्ना

एक ज़माना सीधा रस्ता माँगता है

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