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बे-नियाज़-ए-सौत-ओ-महरूम-ए-बयाँ रक्खा गया - एजाज़ अासिफ़ कविता - Darsaal

बे-नियाज़-ए-सौत-ओ-महरूम-ए-बयाँ रक्खा गया

बे-नियाज़-ए-सौत-ओ-महरूम-ए-बयाँ रक्खा गया

या'नी हर्फ़-ए-शौक़ को ज़ेर-ए-ज़बाँ रक्खा गया

ख़्वाब में रक्खी गई बुनियाद-ए-शहर-ए-आरज़ू

क़ैद में बर्फ़ाब की शो'ला जवाँ रक्खा गया

रहनुमाई दी गई हर मौज-ए-तुंद-ओ-तेज़ को

पानियों पर हर सफ़ीने को रवाँ रक्खा गया

क़ुदसियों को रिफ़अतें बख़्शी गईं फ़िरदौस की

ख़ाक के पुतले को ज़ेर-ए-आसमाँ रक्खा गया

दोपहर की धूप में 'आसिफ़' जला जाता है जिस्म

साया-ए-अश्जार को जाने कहाँ रक्खा गया

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