बे-नियाज़-ए-सौत-ओ-महरूम-ए-बयाँ रक्खा गया
बे-नियाज़-ए-सौत-ओ-महरूम-ए-बयाँ रक्खा गया
या'नी हर्फ़-ए-शौक़ को ज़ेर-ए-ज़बाँ रक्खा गया
ख़्वाब में रक्खी गई बुनियाद-ए-शहर-ए-आरज़ू
क़ैद में बर्फ़ाब की शो'ला जवाँ रक्खा गया
रहनुमाई दी गई हर मौज-ए-तुंद-ओ-तेज़ को
पानियों पर हर सफ़ीने को रवाँ रक्खा गया
क़ुदसियों को रिफ़अतें बख़्शी गईं फ़िरदौस की
ख़ाक के पुतले को ज़ेर-ए-आसमाँ रक्खा गया
दोपहर की धूप में 'आसिफ़' जला जाता है जिस्म
साया-ए-अश्जार को जाने कहाँ रक्खा गया
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