पहचान
वो लम्हा
आईनों का दरिया
जिस में तुम ने अपना आप पहचाना
जिस में तुम ने जाना
कि अपने वजूद में क़ैद तुम महज़ सराब हो
कि शेरों में महफ़ूज़ हो
तो तुम आवाज़ नहीं बाज़गश्त नहीं
महफ़िल आवाज़ों इरादों का ख़्वाब हो
इस दानिश-गाह के बादलों में कौंदे भरे हैं
मेरे हाथों में हाथ दो
मेरे हाथों में हाथ दो
सियाह शोले तुम से कहते हैं चलो
हम नए बाज़ू
नई बुलंद आवाज़ों के साथ चलें
वापस
उस वतन को जिस का फ़र्श हर रोज़
नए लहू से धोया गया है
शीशों की ज़बानें तुम से कहती हैं
अब तुम इक नई आग के
आँसू की तरह
ज़रतार हो
(913) Peoples Rate This