फ़ासलों की बात
तुम ने फ़ासलों की बात समझ ली तो तुम्हें याद आएगा
कि फ़ना हम सब की तक़दीर है
तुम्हें मालूम है? तुम्हारे
घर की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए मैं ने हज़ार बार
चुप-चाप
ज़ीने की सफ़ेद दीवारों पे उँगलियाँ फेरी हैं
इस उम्मीद में कि शायद लम्स के
ऐसे ज़ाइक़े वहाँ रह जाएँ जो तुम हमेशा
बदन के गुंजलक और बे-लफ़्ज़
ज़ाइक़ों की तरह पहचान सको
और याद रखो
अब समझ में आने लगा है
कि कोई नज़्म कभी इश्क़ और दर्द की अस्ल ज़रूरियात
पूरी नहीं करती
कि इश्क़ मौत के ख़िलाफ़ हथियार नहीं
कि हमारे लफ़्ज़ हमारे मक़ासिद से ना-आश्ना हैं
कि मुझे चाहत उस शख़्स की है जो तुम हो
कि मैं मुकम्मल तौर पे तुम्हें
कभी न जान पाऊँगा
और तुम ने ये तमाम मुद्दत
ख़ुद अपने मफ़्हूम की तलाश में सुलगते पिघलते
गुज़ारी है
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