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चले थे घर से तो हम दर्द की दवा के लिए - एजाज़ अहमद एजाज़ कविता - Darsaal

चले थे घर से तो हम दर्द की दवा के लिए

चले थे घर से तो हम दर्द की दवा के लिए

पड़े हैं रस्ते में तेरे मगर दुआ के लिए

मबादा शब की सियाही ज़मीं को खा जाए

नक़ाब रुख़ से उठा दो ज़रा ख़ुदा के लिए

कोई चराग़ तो आँधी से बच के निकलेगा

जला दिए हैं बहुत से दिए हवा के लिए

यहाँ तो रोज़ नई आफ़तों से पाला है

'हुसैन' कितने अब आएँगे कर्बला के लिए

वो जिस ने तूर पे मूसा को बे-क़रार किया

तड़प रही है नज़र फिर उसी अदा के लिए

ज़मीं का सीना तो शोलों की मिस्ल जलता रहा

तरस के चल दिए 'एजाज़' इक घटा के लिए

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