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ग़म में इक मौज सरख़ुशी की है - एहतिशाम हुसैन कविता - Darsaal

ग़म में इक मौज सरख़ुशी की है

ग़म में इक मौज सरख़ुशी की है

इब्तिदा सी ख़ुद आगही की है

किसे समझाएँ कौन मानेगा

जैसे मर मर के ज़िंदगी की है

बुझीं शमएँ तो दिल जलाए हैं

यूँ अंधेरों में रौशनी की है

फिर जो हूँ उस के दर पे नासिया सा

मैं ने ऐ दिल तिरी ख़ुशी की है

मैं कहाँ और दयार-ए-इश्क़ कहाँ

ग़म-ए-दौराँ ने रहबरी की है

और उमडे हैं आँख में आँसू

जब कभी उस ने दिल-दही की है

क़ैद है और क़ैद-ए-बे-ज़ंजीर

ज़ुल्फ़ ने क्या फ़ुसूँ-गरी की है

मैं शिकार-ए-इताब ही तो नहीं

मेहरबाँ हो के बात भी की है

बज़्म में उस की बार पाने को

दुश्मनों से भी दोस्ती की है

उन को नज़रें बचा के देखा है

ख़ूब छुप छुप के मय-कशी की है

हर तक़ाज़ा-ए-लुत्फ़ पर उस ने

ताज़ा रस्म-ए-सितमगरी की है

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