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गया था बज़्म-ए-मोहब्बत में ख़ाली जाम लिए - एहतिशाम हुसैन कविता - Darsaal

गया था बज़्म-ए-मोहब्बत में ख़ाली जाम लिए

गया था बज़्म-ए-मोहब्बत में ख़ाली जाम लिए

कटी है उम्र गदाई का इत्तिहाम लिए

कहीं हुए भी जो रौशन मोहब्बतों के चराग़

हवाएँ दौड़ पड़ीं वहशतों के दाम लिए

तिलिस्म-ए-राज़ न खुल जाए तंग-बीनों पर

तुम्हारे नाम से पहले हज़ार नाम लिए

भटक रहा हूँ मैं तन्हाइयों के जंगल में

हयात रक़्स में है हुस्न-ए-सुब्ह-ओ-शाम लिए

कभी मिली थी जो इक दर्द-ए-ना-रसा की ख़लिश

मैं जी रहा हूँ वही ज़ख़्म-ए-ना-तमाम लिए

किसी की याद में अक्सर यही हुआ महसूस

फ़लक ज़मीन पे उतरा मह-ए-तमाम लिए

मिली है गर्दिश-ए-अय्याम हर ज़माने में

सहर उमीद की और जाँ-कनी की शाम लिए

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