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देख कर जादा-ए-हस्ती पे सुबुक-गाम मुझे - एहतिशाम हुसैन कविता - Darsaal

देख कर जादा-ए-हस्ती पे सुबुक-गाम मुझे

देख कर जादा-ए-हस्ती पे सुबुक-गाम मुझे

दूर से तकती रही गर्दिश-ए-अय्याम मुझे

डाल कर एक नज़र प्यार की मेरी जानिब

दोस्त ने कर ही लिया बंदा-ए-बे-दाम मुझे

कल सुनेंगे वही मुज़्दा मिरी आज़ादी का

आज जो देख के हँसते हैं तह-ए-दाम मुझे

देख लेता हूँ अंधेरे में उजाले की किरन

ज़ुल्मत-ए-शब ने दिया सुब्ह का पैग़ाम मुझे

न तो जीने ही में लज़्ज़त है न मरने की उमंग

उन निगाहों ने दिया कौन सा पैग़ाम मुझे

मैं समझता हूँ मुझे दौलत-ए-कौनैन मिली

कौन कहता है कि वो कर गए बदनाम मुझे

गरचे आग़ाज़-ए-मोहब्बत ने दिए हैं धोके

लिए जाती है कहीं काविश-ए-अंजाम मुझे

तेरा ही हो के जो रह जाऊँ तो फिर क्या होगा

ऐ जुनूँ और हैं दुनिया में बहुत काम मुझे

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