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डर डर के जिसे मैं सुन रहा हूँ - एहतिशाम हुसैन कविता - Darsaal

डर डर के जिसे मैं सुन रहा हूँ

डर डर के जिसे मैं सुन रहा हूँ

खोई हुई अपनी ही सदा हूँ

हर लम्हा-ए-हिज्र इक सदी था

पूछो न कि कब से जी रहा हूँ

जब आँख में आ गए हैं आँसू

ख़ुद बज़्म-ए-तरब से उठ गया हूँ

छटती नहीं ख़ू-ए-हक़-शनासी

सुक़रात हूँ ज़हर पी रहा हूँ

रहबर की नहीं मुझे ज़रूरत

हर राह का मोड़ जानता हूँ

मंज़िल न मिली तो ग़म नहीं है

अपने को तो खो के पा गया हूँ

अपनी ही हवस थी सर-कशीदा

दामन से उलझ के गिर पड़ा हूँ

उर्यानी-ए-फ़िक्र खुल न जाए

ख़्वाबों के लिबास सी रहा हूँ

हर मंज़िल-ए-मर्ग-आफ़रीं में

सर-गश्ता-ए-ज़िंदगी रहा हूँ

धब्बे हैं बहुत से तीरगी के

किन रौशनियों में घिर गया हूँ

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