तिरी शबीह को लिक्खा है रंग-ओ-बू मैं ने
तिरी शबीह को लिक्खा है रंग-ओ-बू मैं ने
गुलों की ऐसे बचा ली है आबरू मैं ने
किताब-ए-ज़ीस्त पे है लफ़्ज़-ए-ना-शनासाई
मगर ये क्या कि लिखा तुम को आज तू मैं ने
मुझी में रह के वो अब तक नहीं मिला मुझ को
कि एक उम्र से की जिस की जुस्तुजू मैं ने
रहेंगे चैन से अब दर्द मैं मोहब्बत ग़म
तुम्हारी दिल से मिटा दी है आरज़ू मैं ने
जो मेरे लहजे में अब भी ख़ुमार है 'सादिक़'
किसी से ख़्वाब में कर ली थी गुफ़्तुगू मैं ने
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