तौक़ीर अँधेरों की बढ़ा दी गई शायद
तौक़ीर अँधेरों की बढ़ा दी गई शायद
इक शम्अ' जो रौशन थी बुझा दी गई शायद
फिर दर-बदरी होने लगी उस का मुक़द्दर
फिर शौक़ के शो'लों को हवा दी गई शायद
मौहूम नज़र आता है अब जोश-ए-मुलाक़ात
कुछ गर्मी-ए-एहसास घटा दी गई शायद
इस बार भी शो'लों ने मचा डाली तबाही
इस बार भी शो'लों को हवा दी गई शायद
टिकतीं नहीं दुनिया-ए-हक़ीक़त पे निगाहें
ख़्वाबों की कोई बज़्म सजा दी गई शायद
आ ठहरी थी जो ज़ब्त के असरार से बच कर
आँखों से वही बूँद गिरा दी गई शायद
क़ातिल को बिठाया गया सर पर मिरे होते
मुझ को मेरी औक़ात बता दी गई शायद
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