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सुर्ख़ मौसम की कहानी है पुरानी हो न हो - एहतराम इस्लाम कविता - Darsaal

सुर्ख़ मौसम की कहानी है पुरानी हो न हो

सुर्ख़ मौसम की कहानी है पुरानी हो न हो

आसमाँ का रंग आगे आसमानी हो न हो

ख़्वाब में मुझ को नज़र आती हैं भीगी सीपियाँ

आँख खुलने पर तिरी आँखों में पानी हो न हो

साथ होती है मिरे हर गाम पर संजीदगी

हो रही है दूर अब मुझ से जवानी हो न हो

हर जगह निकलेगी तेरी बात मुझ को देख कर

तज़्किरा तेरा कहीं मेरी ज़बानी हो न हो

रौशनी देते रहेंगे मुझ को ज़ख़्मों के चराग़

अब अँधेरे में कहीं से ज़ौ-फ़िशानी हो न हो

इक तरफ़ मेरी अना है इक तरफ़ तेरी ख़ुशी

आ गया मेरे लिए पल इम्तिहानी हो न हो

ज़हर का पानी में होना तय-शुदा है 'एहतिराम'

आगही के घाट पर दरिया में पानी हो न हो

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