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हादसों का सिलसिला मंज़र-ब-मंज़र जम गया - एहतराम इस्लाम कविता - Darsaal

हादसों का सिलसिला मंज़र-ब-मंज़र जम गया

हादसों का सिलसिला मंज़र-ब-मंज़र जम गया

हर किसी के धड़ पे इक फ़िरऔन का सर जम गया

ख़ाक की कश्ती तले सोने का साग़र जम गया

दीदा-ए-बे-ख़्वाब में ख़्वाब-ए-सिकंदर जम गया

मौसमों के बीच की दूरी का अंदाज़ा लगाओ

बह गए पर्बत पिघल कर और समुंदर जम गया

लड़खड़ा कर गिर पड़ी ऊँची इमारत दफ़अतन

दफ़अतन तामीर की कुर्सी पे खंडर जम गया

रिफ़अत-ए-चर्ख़-ए-बरीं महदूद हो कर रह गई

जब सरों पर धुँद का सफ़्फ़ाक लश्कर जम गया

दीदा-ए-गुर्बा से क्या फूटी शुआ-ए-जाँ-गुज़ा

फड़फड़ाया तक नहीं ज़िंदा कबूतर जम गया

अहल-ए-दुनिया से मुझे तो कोई अंदेशा न था

नाम तेरा किस लिए मिरे लबों पर जम गया

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