ग़ैज़ का सूरज था सर पर सच को सच कहता तो कौन
ग़ैज़ का सूरज था सर पर सच को सच कहता तो कौन
रास आता किस को महशर सच को सच कहता तो कौन
सब ने पढ़ रक्खा था सच की जीत होती है मगर
था भरोसा किस को सच पर सच को सच कहता तो कौन
मान रखता कौन विष का कौन अपनाता सलीब
कोई ईसा था न शंकर सच को सच कहता तो कौन
था किसी का भी न मक़्सद सच को झुटलाना मगर
मुँह में रख कर लुक़्मा-ए-तर सच को सच कहता तो कौन
आदमी तो ख़ैर से बस्ती में मिलते ही न थे
देवता थे सो थे पत्थर सच को सच कहता तो कौन
सब हक़ीक़त में उभरता जब भी सच लगता न था
ख़्वाब में होते उजागर सच को सच कहता तो कौन
याद था 'सुक़रात' का क़िस्सा सभी को 'एहतिराम'
सोचिए ऐसे में बढ़ कर सच को सच कहता तो कौन
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