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ग़ैज़ का सूरज था सर पर सच को सच कहता तो कौन - एहतराम इस्लाम कविता - Darsaal

ग़ैज़ का सूरज था सर पर सच को सच कहता तो कौन

ग़ैज़ का सूरज था सर पर सच को सच कहता तो कौन

रास आता किस को महशर सच को सच कहता तो कौन

सब ने पढ़ रक्खा था सच की जीत होती है मगर

था भरोसा किस को सच पर सच को सच कहता तो कौन

मान रखता कौन विष का कौन अपनाता सलीब

कोई ईसा था न शंकर सच को सच कहता तो कौन

था किसी का भी न मक़्सद सच को झुटलाना मगर

मुँह में रख कर लुक़्मा-ए-तर सच को सच कहता तो कौन

आदमी तो ख़ैर से बस्ती में मिलते ही न थे

देवता थे सो थे पत्थर सच को सच कहता तो कौन

सब हक़ीक़त में उभरता जब भी सच लगता न था

ख़्वाब में होते उजागर सच को सच कहता तो कौन

याद था 'सुक़रात' का क़िस्सा सभी को 'एहतिराम'

सोचिए ऐसे में बढ़ कर सच को सच कहता तो कौन

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