बात अब आई समझ में कि हक़ीक़त क्या थी
बात अब आई समझ में कि हक़ीक़त क्या थी
एक जज़्बात की शिद्दत थी मोहब्बत क्या थी
अब ये जाना कि वो दिन-रात के शिकवे क्या थे
अब ये मालूम हुआ वज्ह-ए-शिकायत क्या थी
कोई इक शोख़ इशारा ही बहुत था ऐ दोस्त
इतने संजीदा तबस्सुम की ज़रूरत क्या थी
मा'ज़रत थी वो फ़क़त अपनी ग़लत-बीनी की
जिस पे नाज़ाँ थे बहुत हम वो बसीरत क्या थी
हल्क़ा-ए-ज़ुल्फ़-ए-रसा उस के लिए काफ़ी था
तेरे दीवाने को ज़ंजीर की हाजत क्या थी
ये उसी का है नतीजा कि तही-दस्त रहे
हर खिलौने पे लपकने की ज़रूरत क्या थी
फ़रस-ए-उम्र ही अपना है बहुत सुस्त क़दम
वर्ना 'एहसान' पे थोड़ी सी मसाफ़त क्या थी
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