पढ़ रही हैं रात की ख़ामोशियाँ अफ़्सून-ए-ख़्वाब
थम गया है इक प्यानो बजते बजते बाम पर
है मगर एहसास से माैसीक़ियत की छेड़-छाड़
दिल पे जैसे दूर से रिक्शे की घंटी का असर
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जब भी ख़ल्वत में वो याद आएगा
रो रहा था गोद में अम्माँ की इक तिफ़्ल-ए-हसीं
दोपहर होने को है सन्ना गया जंगल तमाम
मैं हैराँ हूँ कि क्यूँ उस से हुई थी दोस्ती अपनी
रहे जो ज़िंदगी में ज़िंदगी का आसरा हो कर
आज भड़की रग-ए-वहशत तिरे दीवानों की
हम-नशीं उफ़ इख़्तिताम-ए-बज़्म-ए-मय-नोशी न पूछ
आज उस ने हँस के यूँ पूछा मिज़ाज
अपनी रुस्वाई का एहसास तो अब कुछ भी नहीं
आसमाँ पर हैं ख़िरामाँ अब्र-पारों के हुजूम
बख़्श दी हाल-ए-ज़बूँ ने जल्वा-सामानी मुझे
आया नहीं है राह पे चर्ख़-ए-कुहन अभी