गदा हूँ मुझ को लेकिन दौलत-ए-कौनैन हासिल है
वो आएँ घर मिरे तक़दीर थी ऐसी कहाँ मेरी
मैं उन को देख कर 'एहसान' ये महसूस करता हूँ
कि जैसे मिल रही हो मुझ को उम्र-ए-राएगाँ मेरी
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मक़्सद-ए-ज़ीस्त ग़म-ए-इश्क़ है सहरा हो कि शहर
यूँ न मिल मुझ से ख़फ़ा हो जैसे
कौन देता है मोहब्बत को परस्तिश का मक़ाम
हम चटानें हैं कोई रेत के साहिल तो नहीं
फ़ुसून-ए-शेर से हम उस मह-ए-गुरेज़ाँ को
'एहसान' ऐसा तल्ख़ जवाब-ए-वफ़ा मिला
कुछ अपने साज़-ए-नफ़स की न क़द्र की तू ने
कभी कभी जो वो ग़ुर्बत-कदे में आए हैं
वफ़ाएँ कर के जफ़ाओं का ग़म उठाए जा
सता लो मुझे ज़िंदगी में सता लो
पढ़ रही हैं रात की ख़ामोशियाँ अफ़्सून-ए-ख़्वाब
ये उड़ी उड़ी सी रंगत ये खुले खुले से गेसू