दोपहर होने को है सन्ना गया जंगल तमाम
इक किरन शाख़ों से छन कर आ रही है फूल पर
जिस तरह इक गाँव की दोशीज़ा-ए-मासूम पर
शहर के बे-ग़ैरत-ओ-बे-मेहर इंसाँ की नज़र
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कौन देता है मोहब्बत को परस्तिश का मक़ाम
आज भड़की रग-ए-वहशत तिरे दीवानों की
फ़ुसून-ए-शेर से हम उस मह-ए-गुरेज़ाँ को
इश्क़ को तक़लीद से आज़ाद कर
हंगामा-ए-ख़ुदी से तू बे-नियाज़ हो जा
मुफ़्लिसी और इस में घर पर हम-नशीनों का हुजूम
जबीं की धूल जिगर की जलन छुपाएगा
मौसम से रंग-ओ-बू हैं ख़फ़ा देखते चलो
ये उड़ी उड़ी सी रंगत ये खुले खुले से गेसू
कभी कभी जो वो ग़ुर्बत-कदे में आए हैं
किसे ख़बर थी कि ये दौर-ए-ख़ुद-ग़रज़ इक दिन
दमक रहा है जो नस नस की तिश्नगी से बदन