देहली का इक रईस ब-हंगाम-ए-जाँ-कनी
सर धुन रहा था चारागरों में घिरा हुआ
जैसे फ़ुसूँ-गरों के झमेले में नीम-शब
खेले सियाह नाग का ताज़ा डसा हुआ
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Gulzar
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दोपहर मैदान गर्मी हब्स अब्र-ए-बे-मता
उट्ठा जो अब्र दिल की उमंगें चमक उठीं
ये उड़ी उड़ी सी रंगत ये खुले खुले से गेसू
परस्तिश-ए-ग़म का शुक्रिया क्या तुझे आगही नहीं
गदा हूँ मुझ को लेकिन दौलत-ए-कौनैन हासिल है
रंग-ए-तहज़ीब-ओ-तमद्दुन के शनासा हम भी हैं
दिल की रग़बत है जब आप ही की तरफ़
'एहसान' अपना कोई बुरे वक़्त का नहीं
दोपहर होने को है सन्ना गया जंगल तमाम
नज़र फ़रेब-ए-क़ज़ा खा गई तो क्या होगा
जब किसी की याद आ कर तिलमिला जाता है दिल
शाम और रस्ते में रेवड़ के गुज़रने से ग़ुबार