चूम कर उस बुत की पेशानी को पछताना पड़ा
खिंच गया मेरे लब-ए-लाल-ए-मोहब्बत से असल
जिस तरह इस्याँ-शिआरों की सियहकारी के ब'अद
खोखली साबित हुआ करती है तामीर-ए-अमल
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कुछ अपने साज़-ए-नफ़स की न क़द्र की तू ने
दोपहर होने को है सन्ना गया जंगल तमाम
यूँ न मिल मुझ से ख़फ़ा हो जैसे
अपनी रुस्वाई का एहसास तो अब कुछ भी नहीं
भूरे भूरे बादलों से आसमाँ लबरेज़ है
ये उजालों के जज़ीरे ये सराबों के दयार
रात है बरसात है मस्जिद में रौशन है चराग़
शोरिश-ए-इश्क़ में है हुस्न बराबर का शरीक
मुफ़्लिसी और इस में घर पर हम-नशीनों का हुजूम
रानाई-ए-कौनैन से बे-ज़ार हमीं थे
बला से कुछ हो हम 'एहसान' अपनी ख़ू न छोड़ेंगे
गर्मियाँ हब्स रात तारीकी