भूरे भूरे बादलों से आसमाँ लबरेज़ है
इस तरह ज़ौ-पाश है रह रह के माह-ए-सीम-फ़ाम
जैसे साहिल की बुलंदी से भरी बरसात में
गदले पानी में हसीं मछली का अंदाज़-ए-ख़िराम
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मैं हैराँ हूँ कि क्यूँ उस से हुई थी दोस्ती अपनी
इस तरह आते हैं अंजाम-ए-मोहब्बत के ख़याल
शाम और रस्ते में रेवड़ के गुज़रने से ग़ुबार
जीने के लिए जो मर रहे हैं
मुफ़्लिसी और इस में घर पर हम-नशीनों का हुजूम
जब भी ख़ल्वत में वो याद आएगा
आज भड़की रग-ए-वहशत तिरे दीवानों की
अब कहो कारवाँ किधर को चले
देहली का इक रईस ब-हंगाम-ए-जाँ-कनी
हम हक़ीक़त हैं तो तस्लीम न करने का सबब
गर्मियाँ हब्स रात तारीकी
ये कौन हँस के सेहन-ए-चमन से गुज़र गया