ये उड़ी उड़ी सी रंगत ये खुले खुले से गेसू
तिरी सुब्ह कह रही है तिरी रात का फ़साना
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कुछ लोग जो सवार हैं काग़ज़ की नाव पर
न सियो होंट न ख़्वाबों में सदा दो हम को
रात है बरसात है मस्जिद में रौशन है चराग़
शाम और रस्ते में रेवड़ के गुज़रने से ग़ुबार
अपनी रुस्वाई का एहसास तो अब कुछ भी नहीं
और कुछ देर सितारो ठहरो
मक़्सद-ए-ज़ीस्त ग़म-ए-इश्क़ है सहरा हो कि शहर
किस किस की ज़बाँ रोकने जाऊँ तिरी ख़ातिर
रहे जो ज़िंदगी में ज़िंदगी का आसरा हो कर
भूरे भूरे बादलों से आसमाँ लबरेज़ है
कल रात कुछ अजीब समाँ ग़म-कदे में था
दिल की शगुफ़्तगी के साथ राहत-ए-मय-कदा गई