सुनता हूँ सुरंगों थे फ़रिश्ते मिरे हुज़ूर
मैं जाने अपनी ज़ात के किस मरहले में था
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दिल की शगुफ़्तगी के साथ राहत-ए-मय-कदा गई
बला से कुछ हो हम 'एहसान' अपनी ख़ू न छोड़ेंगे
मक़्सद-ए-ज़ीस्त ग़म-ए-इश्क़ है सहरा हो कि शहर
रहता नहीं इंसान तो मिट जाता है ग़म भी
बख़्श दी हाल-ए-ज़बूँ ने जल्वा-सामानी मुझे
जब कोई जुगनू चमकता है अँधेरी रात में
देहली का इक रईस ब-हंगाम-ए-जाँ-कनी
बना देंगी दुनिया को इक दिन शराबी
जब भी ख़ल्वत में वो याद आएगा
'एहसान' अपना कोई बुरे वक़्त का नहीं
वफ़ाएँ कर के जफ़ाओं का ग़म उठाए जा
यास में बेदारी-ए-एहसास का आलम न पूछ