कुछ अपने साज़-ए-नफ़स की न क़द्र की तू ने
कि इस रबाब से बेहतर कोई रबाब न था
Habib Jalib
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Javed Akhtar
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Gulzar
Ahmad Faraz
Faiz Ahmad Faiz
Allama Iqbal
Wasi Shah
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गदा हूँ मुझ को लेकिन दौलत-ए-कौनैन हासिल है
पढ़ रही हैं रात की ख़ामोशियाँ अफ़्सून-ए-ख़्वाब
जो ले के उन की तमन्ना के ख़्वाब निकलेगा
शोरिश-ए-इश्क़ में है हुस्न बराबर का शरीक
किसे ख़बर थी कि ये दौर-ए-ख़ुद-ग़रज़ इक दिन
जबीं की धूल जिगर की जलन छुपाएगा
ये कौन हँस के सेहन-ए-चमन से गुज़र गया
मक़्सद-ए-ज़ीस्त ग़म-ए-इश्क़ है सहरा हो कि शहर
इस तरह आते हैं अंजाम-ए-मोहब्बत के ख़याल
चूम कर उस बुत की पेशानी को पछताना पड़ा
रहता नहीं इंसान तो मिट जाता है ग़म भी