किस किस की ज़बाँ रोकने जाऊँ तिरी ख़ातिर
किस किस की तबाही में तिरा हाथ नहीं है
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रहता नहीं इंसान तो मिट जाता है ग़म भी
जो ले के उन की तमन्ना के ख़्वाब निकलेगा
तुम सादा-मिज़ाजी से मिटे फिरते हो जिस पर
आया नहीं है राह पे चर्ख़-ए-कुहन अभी
वफ़ा का अहद था दिल को सँभालने के लिए
फ़ुसून-ए-शेर से हम उस मह-ए-गुरेज़ाँ को
जबीं की धूल जिगर की जलन छुपाएगा
ब-जुज़ उस के 'एहसान' को क्या समझिए
हवा के सय्याल बाज़ुओं पर घटा के शब-रंग कारवाँ हैं
हम-नशीं उफ़ इख़्तिताम-ए-बज़्म-ए-मय-नोशी न पूछ
हम चटानें हैं कोई रेत के साहिल तो नहीं
'एहसान' अपना कोई बुरे वक़्त का नहीं