ख़ाक से सैंकड़ों उगे ख़ुर्शीद
है अंधेरा मगर चराग़-तले
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इश्क़ की दुनिया में इक हंगामा बरपा कर दिया
गदा हूँ मुझ को लेकिन दौलत-ए-कौनैन हासिल है
देहली का इक रईस ब-हंगाम-ए-जाँ-कनी
कल रात कुछ अजीब समाँ ग़म-कदे में था
कुछ अपने साज़-ए-नफ़स की न क़द्र की तू ने
कभी कभी जो वो ग़ुर्बत-कदे में आए हैं
परस्तिश-ए-ग़म का शुक्रिया क्या तुझे आगही नहीं
सता लो मुझे ज़िंदगी में सता लो
वफ़ा का अहद था दिल को सँभालने के लिए
किस किस की ज़बाँ रोकने जाऊँ तिरी ख़ातिर
ज़ब्त भी सब्र भी इम्कान में सब कुछ है मगर
आज उस ने हँस के यूँ पूछा मिज़ाज