हम हक़ीक़त हैं तो तस्लीम न करने का सबब
हाँ अगर हर्फ़-ए-ग़लत हैं तो मिटा दो हम को
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मक़्सद-ए-ज़ीस्त ग़म-ए-इश्क़ है सहरा हो कि शहर
तौबा की नाज़िशों पे सितम ढा के पी गया
जब भी ख़ल्वत में वो याद आएगा
हम चटानें हैं कोई रेत के साहिल तो नहीं
इस तरह आते हैं अंजाम-ए-मोहब्बत के ख़याल
बख़्श दी हाल-ए-ज़बूँ ने जल्वा-सामानी मुझे
देहली का इक रईस ब-हंगाम-ए-जाँ-कनी
जबीं की धूल जिगर की जलन छुपाएगा
रो रहा था गोद में अम्माँ की इक तिफ़्ल-ए-हसीं
जब किसी की याद आ कर तिलमिला जाता है दिल
और कुछ देर सितारो ठहरो
ज़ब्त भी सब्र भी इम्कान में सब कुछ है मगर