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सोज़-ए-जुनूँ को दिल की ग़िज़ा कर दिया गया - एहसान दानिश कविता - Darsaal

सोज़-ए-जुनूँ को दिल की ग़िज़ा कर दिया गया

सोज़-ए-जुनूँ को दिल की ग़िज़ा कर दिया गया

इक ज़हर-ए-जाँ-तलब को दवा कर दिया गया

नासूर भर सके न फ़ुग़ाँ ज़ब्त हो सकी

जब नय को नीस्ताँ से जुदा कर दिया गया

अहल-ए-वफ़ा में मौत की तल्ख़ी को सर-ब-सर

क़ंदाब-ए-ज़िंदगी से सिवा कर दिया गया

अज़बर करा दिया है ख़िज़ाँ को निसाब-ए-गुल

सरसर को दर्स दे के सबा कर दिया गया

सूरज से रंग रंग की किरनें बिखेर कर

मिट्टी का ज़र्द खेत हरा कर दिया गया

लहकी अज़ान बजने लगे रास्तों के फ़र्श

किरनों को क़ैद-ए-शब से रिहा कर दिया गया

रूह-ए-बहार ख़ून-ए-शहीदाँ का रंग देख

ख़ाक-ए-चमन को लाला-क़बा कर दिया गया

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