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जो ले के उन की तमन्ना के ख़्वाब निकलेगा - एहसान दानिश कविता - Darsaal

जो ले के उन की तमन्ना के ख़्वाब निकलेगा

जो ले के उन की तमन्ना के ख़्वाब निकलेगा

ब-इज्ज़-ए-शौक़ ब-हाल-ए-ख़राब निकलेगा

जो रंग बाँट के जाता है तिनके तिनके को

अदू ज़मीं का यही आफ़्ताब निकलेगा

भरी हुई है कई दिन से धुँद गलियों में

न जाने शहर से कब ये अज़ाब निकलेगा

जो दे रहे हो ज़मीं को वही ज़मीं देगी

बबूल बोए तो कैसे गुलाब निकलेगा

अभी तो सुब्ह हुई है शब-ए-तमन्ना की

बहेंगे अश्क तो आँखों से ख़्वाब निकलेगा

मिरे गुनाह बहुत हैं मगर तक़ाबुल में

उसी का लुत्फ़-ओ-करम बे-हिसाब निकलेगा

मिला किसी को न 'दानिश' कुछ आरज़ू के ख़िलाफ़

पस-ए-फ़ना भी यही इंतिख़ाब निकलेगा

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