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जबीं की धूल जिगर की जलन छुपाएगा - एहसान दानिश कविता - Darsaal

जबीं की धूल जिगर की जलन छुपाएगा

जबीं की धूल जिगर की जलन छुपाएगा

शुरू-ए-इश्क़ है वो फ़ितरतन छुपाएगा

दमक रहा है जो नस नस की तिश्नगी से बदन

इस आग को न तिरा पैरहन छुपाएगा

तिरा इलाज शिफ़ा-गाह-ए-अस्र-ए-नौ में नहीं

ख़िरद के घाव तू दीवाना-पन छुपाएगा

हिसार-ए-ज़ब्त है अब्र-ए-रवाँ की परछाईं

मलाल-ए-रूह को कब तक बदन छुपाएगा

नज़र का फ़र्द-ए-अमल से है सिलसिला दरकार

यक़ीं न कर ये सियाही कफ़न छुपाएगा

किसे ख़बर थी कि ये दौर-ए-ख़ुद-ग़रज़ इक दिन

जुनूँ से क़ीमत-ए-दार-ओ-रसन छुपाएगा

तिरा ग़ुबार ज़मीं पर उतरने वाला है

कहाँ तक अब ये बगूला थकन छुपाएगा

खुलेगा बाद-ए-नफ़स से जो रुख़ पे नील-कँवल

उसे कहाँ तिरा उजला बदन छुपाएगा

तिरे कमाल के धब्बे तिरे उरूज के दाग़

छुपाएगा तो कोई अहल-ए-फ़न छुपाएगा

जिसे है फ़ैज़ मिरी ख़ानक़ाह से 'दानिश'

वो किस तरह मिरा रंग-ए-सुख़न छुपाएगा

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