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अब कहो कारवाँ किधर को चले - एहसान दानिश कविता - Darsaal

अब कहो कारवाँ किधर को चले

अब कहो कारवाँ किधर को चले

रास्ते खो गए चराग़ जले

आँसुओं में नहा गईं ख़ुशियाँ

रूठ कर जब वो आ लगे हैं गले

इश्क़ ग़म को उबूर कर न सका

रास्ते कारवाँ के साथ चले

हम पे गुज़री हैं हिज्र की रातें

हम जहन्नम में थे मगर न जले

थे मोहब्बत की इब्तिदा के क़ुसूर

वो तबस्सुम जो आँसुओं में ढले

ख़ाक से सैंकड़ों उगे ख़ुर्शीद

है अंधेरा मगर चराग़-तले

चाँद साकित है रुक गए तारे

अब वो आएँ तो ग़म की रात ढले

मय-कदे का तो ज़िक्र भी है गुनाह

अब हयात-ए-हरम पड़ी है गले

पुर्सिश-ए-हाल का जवाब था क्या

हँस पड़े हम कि जल्द बात टले

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