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आया नहीं है राह पे चर्ख़-ए-कुहन अभी - एहसान दानिश कविता - Darsaal

आया नहीं है राह पे चर्ख़-ए-कुहन अभी

आया नहीं है राह पे चर्ख़-ए-कुहन अभी

ख़तरे में देखता हूँ चमन का चमन अभी

उट्ठेंगे अपनी बज़्म से मंसूर सैकड़ों

काम अहल-ए-हक़ के आएँगे दार-ओ-रसन अभी

रंज-ओ-मेहन निगाह जो फेरें तो फेर लें

लेकिन मुझे अज़ीज़ हैं रंज-ओ-मेहन अभी

बढ़ने दो और शौक़-ए-शहादत अवाम में

कुछ बाँझ तो नहीं है ये ख़ाक-ए-वतन अभी

आँखों की सुर्ख़ियाँ हैं अज़ाएम का इश्तिहार

सीने सुलग रहे हैं लगी है लगन अभी

ये कारवाँ शनावर-ए-तूफ़ाँ तो है मगर

चेहरों पे बोलती है सफ़र की थकन अभी

हैं सामने हमारे रिवायात-ए-कार-ज़ार

बाँधे हुए हैं सर से मुजाहिद कफ़न अभी

बन बन के जाने कितने फ़ना होंगे सोमनात

बस्ते हैं हर गली में यहाँ बुत-शिकन अभी

ऐ शहरयार हम से शिकस्ता-दिलों में आ

तेरी तरफ़ से ख़ल्क़ को है हुस्न-ए-ज़न अभी

रक़्साँ अभी हैं शाम-ए-ग़रीबाँ की झलकियाँ

रौशन नहीं है ख़ंदा-ए-सुब्ह-ए-वतन अभी

जीते रहें उमीद पे रिंदान-ए-तिश्ना-काम

चलता नहीं है दौर-ए-शराब-ए-कुहन अभी

जिन के लहू से क़स्र-ए-वफ़ा में जले चराग़

इन ग़म-ज़दों में आम हैं रंज-ओ-मेहन अभी

गुलशन से फूल चल के मज़ारों तक आ गए

लेकिन है बाग़बाँ की जबीं पर शिकन अभी

है इल्म की निगाह से पिन्हाँ रह-ए-अमल

कहते नहीं कफ़न को यहाँ पैरहन अभी

नब्ज़-ए-बहार पर हैं बगूलों की उँगलियाँ

चलने को चल रही है नसीम-ए-चमन अभी

शबनम के अश्क सूखने देती नहीं फ़ज़ा

हँसता है ख़ुद बहार-ए-चमन पर चमन अभी

हर गाम हर मक़ाम पे कोशिश के बावजूद

'दानिश' न आ सका मुझे जीने का फ़न अभी

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