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पुर-लुत्फ़ सुकूँ-बख़्श हवाएँ भी बहुत थीं - डॉक्टर आज़म कविता - Darsaal

पुर-लुत्फ़ सुकूँ-बख़्श हवाएँ भी बहुत थीं

पुर-लुत्फ़ सुकूँ-बख़्श हवाएँ भी बहुत थीं

गुलशन में तअ'स्सुब की वबाएँ भी बहुत थीं

ख़ुद मैं ने ही रक्खा न ख़याल अपना कभी भी

ग़ैरों की कुछ अपनों की जफ़ाएँ भी बहुत थीं

सूरत पे उजाले थे अगर शम्स-ओ-क़मर के

ज़ुल्फ़ों की सियाही में घटाएँ भी बहुत थीं

थी अहद-ए-जवानी में मोहब्बत ही मोहब्बत

ना-कर्दा गुनाहों की सज़ाएँ भी बहुत थीं

मबहूत थे मसहूर थे सब देख के उस को

शफ़्फ़ाफ़ सरापा था अदाएँ भी बहुत थीं

हर वक़्त मिरे साथ थे असबाब-ए-तबाही

क़िस्मत थी ख़राब अपनी ख़ताएँ भी बहुत थीं

इक रोज़ क़ज़ा ले गई बीमार को 'आज़म'

थे जब कि मसीहा भी दवाएँ भी बहुत थीं

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