वक़्त को बस गुज़ार लेना ही
दोस्तो कोई ज़िंदगानी है
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इस दौर-ए-तरक़्क़ी के अंदाज़ निराले हैं
कुछ आदमी समाज पे बोझल हैं आज भी
अबस इल्ज़ाम मत दो मुश्किलात-ए-राह को 'राही'
इस से पहले कि लोग पहचानें
अगर मौजें डुबो देतीं तो कुछ तस्कीन हो जाती
बहुत आसान है दो घूँट पी लेना तो ऐ 'राही'
वक़ार-ए-ख़ून-ए-शहीदान-ए-कर्बला की क़सम
सवाल ये है कि इस पुर-फ़रेब दुनिया में
इस शहर-ए-निगाराँ की कुछ बात निराली है
ऐन-फ़ितरत है कि जिस शाख़ पे फल आएँगे
अब तो उतनी भी मयस्सर नहीं मय-ख़ाने में
ग़ुस्से में बरहमी में ग़ज़ब में इताब में