मिरा ये मलबा मिरा ख़राबा तुम्हारी यादों से लड़ रहा है
मिरा ये मलबा मिरा ख़राबा तुम्हारी यादों से लड़ रहा है
उसी की ता'मीर हो रही है वो एक घर जो नहीं बचा है
पड़े हुए हैं जली-बुझी सिगरटों के टुकड़े हर इक जगह पर
और एक चेहरा शगुफ़्ता चेहरा तमाम घर में बसा हुआ है
लगा रही है मुझे सदा-ए-हवा दरीचे से लड़ते लड़ते
मिरा ये कमरा ख़मोश कमरा किसी की आहट से भर गया है
कहीं से साये भी आ गए हैं मुझे सुनाने कहानी अपनी
कोई फ़साना भी धीरे धीरे बुलंद मंज़र से हो रहा है
बुला रहीं हैं मुझे दोबारा उदासियों की हसीन वादी
किसी की यादों का सब्ज़-मौसम अभी भी ताज़ा बना हुआ है
जो रंग-रोग़न बिखर रहे हैं तमाम घर में अता है उस की
बस एक आमद से उस की वीराँ खंडर सा ये घर भी जी उठा है
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