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जो भी निकले तिरी आवाज़ लगाता निकले - दिनेश नायडू कविता - Darsaal

जो भी निकले तिरी आवाज़ लगाता निकले

जो भी निकले तिरी आवाज़ लगाता निकले

ऐसे हालात में अब घर से कोई क्या निकले

उस के लहजे में सराबों की अजब रौनक़ है

ऐन मुमकिन है वो तपता हुआ सहरा निकले

हर तरफ़ ख़्वाब वही ख़्वाब वही इक चेहरा

अब किसी तौर मेरे घर से ये मलबा निकले

दश्त वालों को बताओ की यहाँ मैं भी हूँ

क्या पता मुझ से ही उन का कोई रस्ता निकले

बस इसी आस में बैठा हूँ सर-ए-सहरा मैं

कोई बादल मुझे आवाज़ लगाता निकले

काश ऐसा हो तेरे शहर में प्यासा आऊँ

और तिरे क़दमों से हो कर कोई दरिया निकले

रक़्स करते थे तिरे हाथों पे कितने आलम

अब तो आँखों से मिरी रंग हिना का निकले

तेरे होने पे भी इक डर सा लगा रहता है

कैसे इस जी से तिरे हिज्र का धड़का निकले

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