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तमाशा मिरे आगे - दिलावर फ़िगार कविता - Darsaal

तमाशा मिरे आगे

मैं शहर-ए-कराची से कहाँ बहार-ए-सफ़र जाऊँ

जी चाहता है अब मैं इसी शहर में मर जाऊँ

इस शहर-ए-निगाराँ को जो छोड़ूँ तो किधर जाऊँ

सहरा मिरे पीछे है तो दरिया मिरे आगे

इस शहर में कुछ हुस्न का मेआर नहीं है

ब्यूटी की ज़रूरत सर-ए-बाज़ार नहीं है

यूसुफ़ का यहाँ कोई ख़रीदार नहीं है

शो-केस में बैठी है ज़ुलेख़ा मिरे आगे

इस बाग़ में कुछ क़द्र नहीं नग़्मागरी की

उल्टी है यहाँ चाल नसीम-ए-सहरी की

हद हो गई कज-फ़हमी ओ आशुफ़्ता-सरी की

बुलबुल को बुरा कहता है कव्वा मिरे आगे

रिश्वत भी यहाँ एक मरज़ है मुतअद्दी

अपना तो यही पेशा है आबाई-ओ-जद्दी

ला बेचूँगा मंसूख़-शुदा नोटों की रद्दी

जो मैं ने किया था वही आया मिरे आगे

इक चीज़ है इस शहर-ए-कराची का गधा भी

हुशियार भी अहमक़ भी पुराना भी नया भी

कम-बख़्त को आती नहीं तहज़ीब ज़रा भी

करता है सर-ए-बज़्म वो ग़म्ज़ा मिरे आगे

होटल में यहाँ जाओ तो आवाज़ यही आए

इस भाई का दो आना उधर एक कड़क चाय

इस सेठ का इक गुर्दा चचा-जान के दो पाए

मुर्ग़ी का जो ऑर्डर है उसे चूल्हे में डालो

इस सेठ का भेजा ज़रा जल्दी से निकालो

इक मीट फ्राई करो इक अण्डा उबालो

ये सेठ जो बैठा है इसे क़ीमा बनाओ

साहिब की सिरी ठंडी है कुछ आँच दिखाओ

चाय में शकर मारो इसे लम्बा पकाओ

मेरे ने जो बोला है वही मेरे को लाओ

उर्दू में ये फ़रमाता है बैरा मिरे आगे

होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे

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