जादा-ए-फ़न में बड़े सख़्त मक़ाम आते हैं
जादा-ए-फ़न में बड़े सख़्त मक़ाम आते हैं
मर के रह जाता है फ़नकार अमर होने तक
कितने ग़ालिब थे जो पैदा हुए और मर भी गए
क़द्र-दानों को तख़ल्लुस की ख़बर होने तक
कितने इक़बाल रह-ए-फ़िक्र में उट्ठे लेकिन
रास्ता भूल गए ख़त्म-ए-सफ़र होने तक
कितने शब्बीर-हसन-ख़ाँ न बने 'जोश' कभी
मर गए कितने सिकंदर भी जिगर होने तक
'फ़ैज़' का रंग भी अशआ'र में आ सकता था
उँगलियाँ साथ तो दें ख़ून में तर होने तक
चंद ज़र्रों ही को मिलती है ज़िया-ए-ख़ुर्शीद
चंद तारे ही चमकते हैं सहर होने तक
दिल-ए-शाइर पे कुछ ऐसी ही गुज़रती है 'फ़िगार'
जो किसी क़तरे पे गुज़रे है गुहर होने तक
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