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जादा-ए-फ़न में बड़े सख़्त मक़ाम आते हैं - दिलावर फ़िगार कविता - Darsaal

जादा-ए-फ़न में बड़े सख़्त मक़ाम आते हैं

जादा-ए-फ़न में बड़े सख़्त मक़ाम आते हैं

मर के रह जाता है फ़नकार अमर होने तक

कितने ग़ालिब थे जो पैदा हुए और मर भी गए

क़द्र-दानों को तख़ल्लुस की ख़बर होने तक

कितने इक़बाल रह-ए-फ़िक्र में उट्ठे लेकिन

रास्ता भूल गए ख़त्म-ए-सफ़र होने तक

कितने शब्बीर-हसन-ख़ाँ न बने 'जोश' कभी

मर गए कितने सिकंदर भी जिगर होने तक

'फ़ैज़' का रंग भी अशआ'र में आ सकता था

उँगलियाँ साथ तो दें ख़ून में तर होने तक

चंद ज़र्रों ही को मिलती है ज़िया-ए-ख़ुर्शीद

चंद तारे ही चमकते हैं सहर होने तक

दिल-ए-शाइर पे कुछ ऐसी ही गुज़रती है 'फ़िगार'

जो किसी क़तरे पे गुज़रे है गुहर होने तक

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