उस से कुछ ख़ास तअल्लुक़ भी नहीं है अपना
मैं परेशान हुआ जिस की परेशानी पर
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बोझ उठाए हुए दिन रात कहाँ तक जाता
यूँ दीदा-ए-ख़ूँ-बार के मंज़र से उठा मैं
सुख़न-सराई कोई सहल काम थोड़ी है
हवस से जिस्म को दो-चार करने वाली हवा
मंज़र से उधर ख़्वाब की पस्पाई से आगे
मख़्फ़ी हैं अभी दिरहम-ओ-दीनार हमारे
मैं सुर्ख़ फूल को छू कर पलटने वाला था
तुम ख़ुद ही दास्तान बदलते हो दफ़अतन
ख़ुद में खिलते हुए मंज़र से नुमूदार हुआ
दरून-ए-ख़्वाब नया इक जहाँ निकलता है
मैं जब मैदान ख़ाली कर के आया
वो बहते दरिया की बे-करानी से डर रहा था