तुम ख़ुद ही दास्तान बदलते हो दफ़अतन
हम वर्ना देखते नहीं किरदार से परे
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चाँद तारे तो मिरे बस में नहीं हैं 'आज़र'
दरून-ए-ख़्वाब नया इक जहाँ निकलता है
ख़ुद में खिलते हुए मंज़र से नुमूदार हुआ
ज़मीन अपने ही मेहवर से हट रही होगी
सुख़न-सराई कोई सहल काम थोड़ी है
अजीब रंग अजब हाल में पड़े हुए हैं
एक लम्हे के लिए तन्हा नहीं होने दिया
वही सितारा-नुमा इक चराग़ है 'आज़र'
हवस से जिस्म को दो-चार करने वाली हवा
अक्स मंज़र में पलटने के लिए होता है
खींच कर अक्स फ़साने से अलग हो जाओ