सभी के हाथ में पत्थर थे 'आज़र'
हमारे हाथ में इक आईना था
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ख़ुद में खिलते हुए मंज़र से नुमूदार हुआ
मुमकिन है कि मिलते कोई दम दोनों किनारे
अक्स मंज़र में पलटने के लिए होता है
दूर के एक नज़ारे से निकल कर आई
तुम ख़ुद ही दास्तान बदलते हो दफ़अतन
एक लम्हे के लिए तन्हा नहीं होने दिया
कब तक फिरूंगा हाथ में कासा उठा के मैं
चाँद तारे तो मिरे बस में नहीं हैं 'आज़र'
हवा ने इस्म कुछ ऐसा पढ़ा था
हवस से जिस्म को दो-चार करने वाली हवा
बदन को छोड़ ही जाना है रूह ने 'आज़र'
मख़्फ़ी हैं अभी दिरहम-ओ-दीनार हमारे