मैं जब मैदान ख़ाली कर के आया
मिरा दुश्मन अकेला रह गया था
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यूँ दीदा-ए-ख़ूँ-बार के मंज़र से उठा मैं
दरून-ए-ख़्वाब नया इक जहाँ निकलता है
आग लग जाएगी इक दिन मिरी सरशारी को
उस से मिलना तो उसे ईद-मुबारक कहना
वही सितारा-नुमा इक चराग़ है 'आज़र'
एक लम्हे के लिए तन्हा नहीं होने दिया
सात दरियाओं का पानी है मिरे कूज़े में
अब मुझ को एहतिमाम से कीजे सुपुर्द-ए-ख़ाक
ख़ुद में खिलते हुए मंज़र से नुमूदार हुआ
मख़्फ़ी हैं अभी दिरहम-ओ-दीनार हमारे
ज़मीन अपने ही मेहवर से हट रही होगी
दूर के एक नज़ारे से निकल कर आई