एक लम्हे के लिए तन्हा नहीं होने दिया
ख़ुद को अपने साथ रक्खा जिस जहाँ की सैर की
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अब मुझ को एहतिमाम से कीजे सुपुर्द-ए-ख़ाक
हवस से जिस्म को दो-चार करने वाली हवा
नींद में खुलते हुए ख़्वाब की उर्यानी पर
मंज़र से उधर ख़्वाब की पस्पाई से आगे
उस से मिलना तो उसे ईद-मुबारक कहना
अजीब रंग अजब हाल में पड़े हुए हैं
सभी के हाथ में पत्थर थे 'आज़र'
आग लग जाएगी इक दिन मिरी सरशारी को
दूर के एक नज़ारे से निकल कर आई
वो बहते दरिया की बे-करानी से डर रहा था
दरून-ए-ख़्वाब नया इक जहाँ निकलता है