इक दिन जो यूँही पर्दा-ए-अफ़्लाक उठाया
बरपा था तमाशा कोई तन्हाई से आगे
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'आज़र' रहा है तेशा मिरे ख़ानदान में
ख़ुद में खिलते हुए मंज़र से नुमूदार हुआ
अजीब रंग अजब हाल में पड़े हुए हैं
चाँद तारे तो मिरे बस में नहीं हैं 'आज़र'
एक लम्हे के लिए तन्हा नहीं होने दिया
दरून-ए-ख़्वाब नया इक जहाँ निकलता है
खींच कर अक्स फ़साने से अलग हो जाओ
मैं जब मैदान ख़ाली कर के आया
यूँ दीदा-ए-ख़ूँ-बार के मंज़र से उठा मैं
बना रहा था कोई आब ओ ख़ाक से कुछ और
आँख में ख़्वाब ज़माने से अलग रक्खा है
हवा ने इस्म कुछ ऐसा पढ़ा था