अब मुझ को एहतिमाम से कीजे सुपुर्द-ए-ख़ाक
उक्ता चुका हूँ जिस्म का मलबा उठा के मैं
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मैं जब मैदान ख़ाली कर के आया
हवा ने इस्म कुछ ऐसा पढ़ा था
सभी के हाथ में पत्थर थे 'आज़र'
मैं सुर्ख़ फूल को छू कर पलटने वाला था
एक लम्हे के लिए तन्हा नहीं होने दिया
लम्हा लम्हा वुसअत-ए-कौन-ओ-मकाँ की सैर की
उस से कुछ ख़ास तअल्लुक़ भी नहीं है अपना
ख़ुद अपनी आग में सारे चराग़ जलते हैं
खींच कर अक्स फ़साने से अलग हो जाओ
बना रहा था कोई आब ओ ख़ाक से कुछ और
सात दरियाओं का पानी है मिरे कूज़े में
मुमकिन है कि मिलते कोई दम दोनों किनारे